मंगलवार, 25 अगस्त 2020

कविता

 बन्न परल छै 

सुन्न महल छै

कानि रहल छै आंगन ।

पूछि रहल छै

ढूरि रहल छै

बाट जोहैत छै दलान ।

भदेश धेने छै

गाम बिसरल छै

परती बनल छै खेत-खरिहान ।

भाषा छुटल छै

संस्कृति घटल छै

मिट रहल छै अपन पहिचान ।

:गणेश मैथिल 

गुवाहाटी