"मानव"
हे मानव !
उठो, आँखें खोलो, देखो
कितने धन्य हो तुम !
स्वयं रवि जगा रहे है
आकर तुम्हारे चौखट पर ,
चिड़ियाँ चुन-मुन कर ,
कोयलिया गा कर मीठी गीत ,
सागर की लहरों से उठती
सर्द हवाओं की टोली ,
बगीचों से आती
खुशबूदार फूलों की खुश्बू,
सब खड़े है
तुम्हारे स्वागत को !
पर तुम हो !
बिना मोबाइल के
टन-टन सुने उठते नहीं,
बिना सिगरेट का धुआँ छोड़े
तुम्हारी नींदे टूटती नहीं !
फिर दिन भर भागम-भाग ,
कितने झूठ , कितने फरेब ,
एक- दूसरे को पटकने की होड़ ,
मानव मानव का दुश्मन
मानवता का न कोई नामो-निशान !
क्यों मानव ? क्यों ये सब ?
क्या यही विकाश हैं ?
क्या भौतिक सूख प्राकृतिक सूखों से बड़ी हैं ?
क्यों तोड़ रहे है हम
प्राकृतिक नियमों को ?
हे मानव ?
सब को अधिकार हैं जीने का
सब को स्वतंत्र जीने दो
विकाश करो !
पर मानवता को न अवरुद्ध होने दो !!!
:गणेश कुमार झा "बावरा"
गुवाहाटी
हे मानव !
उठो, आँखें खोलो, देखो
कितने धन्य हो तुम !
स्वयं रवि जगा रहे है
आकर तुम्हारे चौखट पर ,
चिड़ियाँ चुन-मुन कर ,
कोयलिया गा कर मीठी गीत ,
सागर की लहरों से उठती
सर्द हवाओं की टोली ,
बगीचों से आती
खुशबूदार फूलों की खुश्बू,
सब खड़े है
तुम्हारे स्वागत को !
पर तुम हो !
बिना मोबाइल के
टन-टन सुने उठते नहीं,
बिना सिगरेट का धुआँ छोड़े
तुम्हारी नींदे टूटती नहीं !
फिर दिन भर भागम-भाग ,
कितने झूठ , कितने फरेब ,
एक- दूसरे को पटकने की होड़ ,
मानव मानव का दुश्मन
मानवता का न कोई नामो-निशान !
क्यों मानव ? क्यों ये सब ?
क्या यही विकाश हैं ?
क्या भौतिक सूख प्राकृतिक सूखों से बड़ी हैं ?
क्यों तोड़ रहे है हम
प्राकृतिक नियमों को ?
हे मानव ?
सब को अधिकार हैं जीने का
सब को स्वतंत्र जीने दो
विकाश करो !
पर मानवता को न अवरुद्ध होने दो !!!
:गणेश कुमार झा "बावरा"
गुवाहाटी