रविवार, 19 फ़रवरी 2012

Hindi Kavita--MANAV

"मानव"



हे मानव !


उठो, आँखें खोलो, देखो


कितने धन्य हो तुम !


स्वयं रवि जगा रहे है


आकर तुम्हारे चौखट पर ,


चिड़ियाँ चुन-मुन कर ,


कोयलिया गा कर मीठी गीत ,


सागर की लहरों से उठती


सर्द हवाओं की टोली ,


बगीचों से आती


खुशबूदार फूलों की खुश्बू,


सब खड़े है


तुम्हारे स्वागत को !


पर तुम हो !


बिना मोबाइल के


टन-टन सुने उठते नहीं,


बिना सिगरेट का धुआँ छोड़े


तुम्हारी नींदे टूटती नहीं !


फिर दिन भर भागम-भाग ,


कितने झूठ , कितने फरेब ,


एक- दूसरे को पटकने की होड़ ,


मानव मानव का दुश्मन


मानवता का न कोई नामो-निशान !


क्यों मानव ? क्यों ये सब ?


क्या यही विकाश हैं ?


क्या भौतिक सूख प्राकृतिक सूखों से बड़ी हैं ?


क्यों तोड़ रहे है हम


प्राकृतिक नियमों को ?


हे मानव ?


सब को अधिकार हैं जीने का


सब को स्वतंत्र जीने दो


विकाश करो !


पर मानवता को न अवरुद्ध होने दो !!!


:गणेश कुमार झा "बावरा"


गुवाहाटी