शनिवार, 28 जनवरी 2012

कथा: " मनोरथ "

कथा:   "  मनोरथ "
          :गणेश कुमार झा "बावरा":
आई विश्वम्बर बाबूक ज्येष्ठ बालक दिवाकरक घटक आबए वाला छै आ ताए विश्वम्बर बाबू भिनसरे सँ दूरा-दरवाजा साफ -सुथरा करेबा में लागल छलाह |ओ टोल-परोस सँ कुर्सी-टेबल आ बिछौनी मंगबा क' राखि लेने छथि | विश्वम्बर बाबू पुराने मुदा नील- टिनोपाल, इस्त्री देल धोती-कुर्ता पहीर शान सँ दलान पर बैसल छथि |ओ एना उत्सुक छथि, जेना बुझि परैया हुनके घटक आबए वाला होइन | ओना ई कोनो पहिल घटक नै आबि रहल छैन, एहि सँ पहिनो कएकटा घटक 'मोल' मन जोगर नै होएबाक कारण घूमि क' चलि गेल छैन, मुदा एहि बेर विश्वम्बर बाबू के पूर्ण विश्वास छैन जे बेटाक विआह मे टाका गिनेबाक आ गमछा मे बन्हबाक 'मनोरथ' पूर्ण भ' जेतनि |
             दिवाकर बी0ए० पास अछि आ गामे मे ट्यूशन -टाशन करैत अछि | विश्वम्बर बाबू कतेको बेर ओकरा गाड़ी-भाड़ा ताकि आनि देलखिन आ बाहर जाए कमाए लेल कहलखिन , मुदा दिवाकर गामे मे रहि व्यापार करबाक सोइच रहल अछि | विश्वम्बर बाबू कें मन छलनि जे नै बेसी दिन कम सँ कम विआहो तक दिवाकर बाहर रहैत त'  कमौआ पूत कहि क' बेसी दहेजक माँग करितौं | मुदा दिवाकर विश्वम्बर बाबू कें मनोरथ पर पानि फेर देलक | एतबा नै --दहेजक टाका सँ जतय दिवाकर व्यापार करबाक हेतु सोचि रहल अछि ओतहि विश्वम्बर बाबू खेत किनबाक सोचि रहल छथि | देखी, आइ विश्वम्बर बाबू कन्यागत सँ कतेक टाका अईठऐति  छथि |
                          दुपहरियाक एक बाजि रहल अछि | श्यामजी, जे बड़दक पक्किया आ बड़ पैघ दलाल छथि आ संगे वरक दलाली सेहो करैथ छथि, चारि गोट कन्यागतक संग विश्वम्बर बाबूक दलान पर उपस्थित होइत छथिन | विश्वम्बर बाबू अपन छोट बालक मनीष कें आँगन सँ पानि-लोटा लाबय लेल कहैत छथिन | मनीष झट द' दौड़ क' पानि लबैत अछि | ओहो फुर्ती मे अछि, जेँ नै किछु त' डारिहो त' भेटबे करत | कन्यागत पाएर-हाथ-मुँह धो-धा दलान पर बैसैत छथि | श्याम जी कन्यागत आ विश्वम्बर बाबू कें परिचय करबै छथिन | आँगन मे चाय- नास्ताक जुगार भ' रहल अछि |
               कन्यागतक चेहरा सँ ई परिलक्षित भ' रहल अछि, जे वर तकैत-तकैत ओहो थाकि गेल छथि आ जेना-तेना एहि बेर बेटीक विआह क' लेता | कतेको गाम घुमला, कतेको दलानक चाय-पान खेलैथ-पिलैथ, मुदा अपन कन्या हेतु सुयोग्य वर खोजबा मे विफल रहला | कतौ वर पसीन त' घर नै, कतौ घर पसीन त' वर नै आ कतौ घर-वर दुनू पसीन त' मोल नै |  देखी, अई बेर कोन भंगठा लगे छनि........|
आँगन सँ चाय-पान आएल आ कन्यागतक संगें गौंवाँ-घरूआ सेहो खेलक-पिलक | चाय-पान भेलाक पश्चात श्यामजी दिवाकर कें कन्यागतक समक्ष करै छथिन | एक सज्जन किछु पूछ' चाहलखिन
कि बीच्चहि  मे श्यामजी बाजि उठला ---आह! दिवाकरक गुण त' हमरा गाम मे चर्चाक विषय बनल अछि | केकरो सँ भरि मुँह बातो नै करैत अछि | विलक्षण बुद्धिक आ कर्मठ अछि | कन्यागत अपन पूछबाक विचार छोडि दिवाकर कें वापस जेबाक आज्ञा देलखिन |
                 श्यामजी कार्यक्रम कें आगाँ बढाबैत कन्यागत सँ पूछैत छथिन--जँ वर पसीन भेल त' गप्प आगाँ बढ़ाऊ ? --कन्यागत हँ मे उत्तर दैत छथिन | श्यामजी विश्वम्बर बाबू सँ पूछैत छथिन--की कोना ल' द' कन्यागत कें उद्धार करबनि ?-- विश्वम्बर बाबू स्वयं दाम कहबा मे घबड़ा रहल छथि, होइत छनि कि कहीं कम नै कहा जाए ! ताए  दाम तोड़बाक भार श्यामजी पर थोइप दैत छथिन | श्यामजी, दिवाकरक दाम दू लाख इक्यावन हजार कन्यागत कें सुनाबै  छथिन | कन्यागत सँ पहिने विश्वम्बर बाबूक चेहरा सँ पसीना खसय लगैत छनि | हुनका बुझना जाइत छनि जेना श्यामजी कम दाम कहि देलखिन | ओ एकटा फटफटिया सेहो माँग करैत चाहैत छलाह आ ताए श्यामजी कें कानमे फुसुर-फुसुर ई गप्प कहै छथिन | श्यामजी कहैत छथिन-- हँ यौ ! फटफटिया त'   विदाई  मे भेटबे करत |
ई गप्प सुनिते आब कन्यागत कें हाथ-पाएर काँपे लगलनी, ओ बुझि गेला जे इहो वर भाव सँ पटै वाला नै अछि | श्यामजी कन्यागत सँ कहैत छथिन---की कुटुम्ब लेन-देन मंजूर अछि ? कन्यागत दुनू हाथ जोड़ी बाजि उठला--हमर ओकात सवा लाख सँ सवा पाई बेसी देबाक नै अछि | हम कल जोड़ी अपने लोकनि सँ प्रार्थना करै छी, हमरा एतेक मे उद्धार करू ! हम थाकि चुकल छी, आओर बौएबाक सामर्थ हमरा मे नै अछि | मुदा एतेक गप्प सुनैत देरी विश्वम्बर बाबू कें तड़बाक लहिरि  मगज मे ध' लेलकनी  आ  ओ देह-हाथ झारैत अँगना  दुकि गेलाह | ओम्हर हुनकर कनियाँ अलगे आगि-बबूला भेल, एकहि टांगे नाचि रहल छथि | ओ कहैत छथिन--- फल्म्माक बेटा मैट्रिक पास छै तइयो डेढ़ लाख टाका देलकै, हमर बेटा त' बी०ए० पास अछि | श्यामजी सेहो विश्वम्बर बाबू कें पाछाँ लागल आँगन जाइत छथि | अँगना मे विचार-विमर्श कें पश्चात निर्णय होइत अछि जे सवा दू लाख आ एक फटफटिया सँ सवा पाई कम नै हेतनि, बेटी विआह करबाक छनि त' करैथ, नै त' दोसर द्वारि देखौथ |
        श्यामजी दलान पर आबि आँगनक निर्णय कन्यागत कें सुना दैत छथिन | मुदा कन्यागत पूर्णत: जूआ पटैक दैत छथिन | ओहि सँ आगाँ एक डेग नै बढ़' चाहैत छथि | अर्थात फेर भाव नै पटबाक कारण विश्वम्बर बाबूक गमछा ओछौले रहि जाइत छनि आ बेटाक विआह मे टाका गिनेबाक आ बन्ह्बाक "मनोरथ"  मुर्झा जाइत छनि |
                                                           ' इति '