रविवार, 25 अक्टूबर 2015

कविताः देवक लीलि

पाथर बनल छै आँखि ओकर
एकहि दिश छै लगेने टकटकी
नहि हर्षमे, नहि विषादमे
ओ बहाबैत छै नोर
पूर्वा-पछवा बहै
चाहे बहै कोनो बसात
ओकरा पर नहि होइछै
कोनो बसातक असरि
ओ पहिने एहन नहि छलहि
हरदम फूल जेना मुस्काइत छलहि
गाबैत छलहि नाचैत छलहि
अपन आँचर सँ स्नेह उड़ाबैत छलहि
मुदा एक दिन डोललै हिमालय
कराहि उठलै धरती
तर तर फाटै लगलै
समाए लगलै
लोक-बेद घर-द्वार धरती
खिलखिलाइत फूल मुर्झा गेलहि
देखिते देखिते आँखिक सोझा
उजरि गेलहि ओकर संसार
मुदा बाँचि गेलहि ओ अभागीन
देखअ लेल देवक अभिषाप
बड्ड देवता पितर पूजैत छलहि
सदिखन पाथर पर माथ रगड़ैत छलहि
मुदा हाय रे देवक लीला
आइ ओ स्वयं पाथरक बूत बनल छलहि !!!!!!!
:गणेश मैथिल, गुवाहाटी