रविवार, 19 फ़रवरी 2012

कविता - साम्प्रदायिकताक आगि

"साम्प्रदायिकताक आगि"



नै लगाऊ साम्प्रदायिकताक आगि


एहि मे होएब हम सब जरि क छाई


एहि आगि मे हम जरि वा आहाँ


मुदा, होएत कुनू 'नैन्ना टुगर


हेती केयो 'स्त्री विधवा'


हेता केयो 'पिता नि:संतान' !!


एहि सँ नै आहाँ बनब नै हम


बस उजरत एक बसल बैसाएल घर !


राजनेता के की जाईत छै


ओ अपन कुर्सी हथिअबैया


कनैत-खिंझैत जनता अछि मरैत


मुइला के बाद


के अछि पूछैत ?


एहिलेल कहै छी


समय रहैत सजग भ जाउ


"साम्प्रदायिकताक आगि नै लगाऊ"


:गणेश कुमार झा "बावरा"


गुवाहाटी